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Showing posts from December, 2012
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मीराबाई को लोगों ने बहुत त्रस्त किया सहने की भी सीमा होती है मीराबाई ने बहुत सहन किया।। एक बार बहुत व्याकुल हो गयीं , तब चित्रकूट में तुलसीदास जी महाराज को उन ्होंने पत्र लिखा।।। आशय था कि मै तीन वर्ष की थी, तब से गिरधर गोपाल के प्रति अनुरक्त हु। मेरी इच्छा न होने पर मेरा विवाह हुआ।। मै एक राजा की रानी हु। राजमहल का विलासी जीवन मुझे पसंद नहीं है। मै पति को परमात्मा मानती हु। व्यवहार की मर्यादा से भक्ति करती हु फिर भी लोगों से त्रास पाती हु। मै क्या करू? तुलसीदास जी महाराज ने उत्तर दिया - 'बेटी, सुवर्ण की परख कसौटी पर होती है, पीतल की कसौटी पर नहीं होती। मन को समझाना की कन्हैया तुम्हे कसौटी पर परख रहे है। धैर्य धारण कर लो। जिन्हें श्री सीताराम प्रिय नहीं लगते, जिन्हें श्री कृष्ण से प्रेम नही है, जो माँ के भक्त नहीं उसे दूर से ही वंदन करो, वैष्णव बैर नहीं रखते, उपेक्षा करते है --- जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिए ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम स्नेही।। जिन्हें श्रीसीता
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संत मीराबाई और उनकी पदावली << खरीदें सं. बलदेव वंशी << आपका कार्ट पृष्ठ : 148 << अपने मित्रों को बताएँ मूल्य : $ 10.95 प्रकाशक : परमेश्वरी प्रकाशन आईएसबीएन : 81-88121-75-4 प्रकाशित : मार्च ०४, २००६ पुस्तक क्रं : 4448 मुखपृष्ठ : सजिल्द सारांश: प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश मीराँबाई की गति अपने मूल की ओर है। बीज-भाव की ओर है। भक्ति, निष्ठा, अभिव्यक्ति सभी स्तरों पर मीराँ ने अपने अस्तिस्व को, मूल को अर्जित किया है। आत्मिक, परम आत्मिक उत्स (कृष्ण) से जुड़कर जीवन को उत्सव बनाने में वह धन्य हुई। अस्तित्व की गति, लय, छंद को उसने निर्बंध के मंच पर गाया है। जीया है। मीराँ उफनती आवेगी बरसाती नदी की भाँति वर्जनाओं की चट्टानें तोड़ती, राह बनाती अपने गंतव्य की ओर बे रोक बढ़ती चली गयी। वर्जनाओं के टूटने के झंकार से मीराँ की कविता अपना श्रृंगार करती है। मीराँ हर स्तर पर लगातार वर्जनाओं का क्रम-क्रम तोड़ती चली गई। राजदरबार की, रनिवास की, सामंती मूल्यों की, पुरुष-प्रधान समाज द्वारा थोपे गए नियमों की कितनी ही वर्जनाओं की श्रृंखलाएँ मीराँ ने तोड़ फेंकी और मुक्त हो गई। इतना ही नहीं
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मीरा पर शोधकार्य हो रहा है, यह जानकर बहुत प्रसन्नता हो रही है...आज जरूरत है इस तरह के शोध की। सबसे अच्छी बात यह है कि मंजू रानी (शोधार्थी छात्र ) फेलोशिप की मदद से बड़े पैमाने पर सेमिनार आयोजित करवा रही हैं.. शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि कोई छात्र अपने शोध को लेकर इतना गंभीर है। उनकी गंभीरता का प्रमाण इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि वह दिल्ली से मीरा की नगरी में जाकर इतना भब्य आयोजन कर रही हैं। हिन्दी भाषा के लिए यह शुभ संकेत हैं...मंजू के इस प्रयास को साधुवाद.. मंजू रानी शोधार्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय)