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काव्यभाषा और मलूकदास

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मीरा मेरी यात्रा पुस्तक के प्रकाशन के बाद मेरी दूसरी पुस्तक आपकी नजर .....आशा है आपका प्रोत्साहन अनवरत रूप से मिलता रहेगा.....आपकी शुभकामनाओं के साथ ...!!!  यह रहा पुस्तक का आवरण:  मलूक दास न तो कवि थे , न दार्शनिक , न धर्मशास्त्री , । वह दीवाने , परवाने है और परमात्मा को उन्होंने ऐसे जाना है जैसे परवाना शमा को जानता है। यह पहचान बड़ी दूर-दूर से नहीं , परिचय मात्र नहीं है वह पहचान अपने को गंवा कर , अपने को मिटा कर होती है। लेकिन मलूक की मस्ती सस्ती बात नहीं है। महंगा सौदा है। सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। जरा भी बचाया तो चूके। निन्यानवे प्रतिशत दांव पर लगाया और एक प्रतिशत भी बचाया तो चूक गए। क्योंकि उस एक प्रतिशत बचाने में ही तुम्हारी बेईमानी जाहिर हो गयी। निन्यानवे प्रतिशत दांव पर लगाने में तुम्हारी श्रद्वा जाहिर न हुई। मगर एक प्रतिशत बचाने में तुम्हारा काइयाँपन जाहिर हो गया। दांव तो सौ प्रतिशत होता है नहीं तो दांव नहीं होता , दुकानदारी होती है। मलूक के साथ चलना हो तो जुआरी कि बात समझनी होगी। दुकानदार की बात छोड़ देनी होगी। यह दांव लगाने वालों की बात है , दीवानों की। धर्म श